“भारत डिजिटल लर्निंग मिशन के इस ब्लॉग में AI के प्रभाव और उसके विभिन्न पहलुओं पर गहन चर्चा की गई है, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, यूजर्स पर निगरानी, मानसिक स्वास्थ्य, टेक्नोलॉजी की लत, आत्म-सम्मान शामिल हैं।”
AI और उसकी यूजर्स पर निगरानी
कैसे कॉरपोरेशन AI का उपयोग करके यूजर्स के डेटा को ट्रैक और विश्लेषण (Analysis) करते हैं।”सभी सोशल मीडिया कंपनियां और कॉरपोरेशन यूजर्स पर नजर रखते हैं। वे इमोशनल अंडस्टैंडिंग का एक AI यूज़ करके मशीन लर्निंग को बेहतर बना रहे हैं। यह मशीनें इंसानों के बिहेवियर को नोटिस करती हैं और लगातार डाटा इकट्ठा करती हैं, जिससे कि बाद में गुप्त तरीकों से इस डाटा का इस्तेमाल करके कॉरपोरेशन अपने मनचाहे अनुसार आपके दिमाग को घुमा सकें। आपसे वो करवा सकते हैं जो आपने सोचा भी न हो |
सोशल मीडिया का मानसिक प्रभाव:
स्क्रीन समय और मीडिया कंटेंट का हमारे सपनों और विचारों पर प्रभाव।ये बात याद रखने वाली है कि हम जो भी चीज फोन या किसी भी स्क्रीन पर देखते हैं, उनका हमारे दिमाग पर बहुत गहरा असर होता है। और यह बात हम इसी से समझ सकते हैं कि जब हम कलर टीवी के प्रचलन में नहीं थे, या कहें कि जब लोगो ने कलर स्क्रीन नहीं देखी थी , उस समय उन्हें सपने भी ब्लैक एंड व्हाइट में ही आते थे। स्टेटिस्टिक्स की मानें तो उस समय पूरी दुनिया में लगभग सिर्फ 15% लोग ही रंगीन सपने देखते थे, और बाकी लोगों को सपनों में रंग दिखाई ही नहीं देते थे। सपनों के रंग पर लगभग एक सदी से राय बटी हुई है।
1915 से 1950 के दशक तक के अध्ययनों से पता चला कि अधिकांश सपने काले और सफेद रंग में होते हैं। लेकिन 60 के दशक में हालात बदल गए और बाद के नतीजों से पता चला कि 83% सपनों में कुछ न कुछ रंग जरूर होते हैं।ये इस लिए था क्यों की 60 के दशक में रंगीन TV प्रचलन में आ गया था ये बदलाव रंगीन स्क्रिन की वजह से था तो जी हाँ, आप जो भी स्क्रीन पर देखते हैं, उसका आपके दिमाग पर बहुत गहरा असर होता है, और इसी का फायदा ये कॉरपोरेशन भी उठाते हैं।
ये बेशक हमें वह खिलाते हैं जो हम चाहते हैं, पर अब यह डिसाइड करने लगे हैं कि असल में हम चाहते क्या हैं। जैसे, अगर आपके जीवन के पैटर्न का हिस्सा ऑनलाइन शॉपिंग है, तो फिर सारे के सारे ही एप्स पर आपको जो भी कंटेंट्स दिखेंगे , उसमें कहीं ना कहीं आपको नए कपड़ों के ट्रेंड्स या जिन भी चीजों की शॉपिंग आप करते हैं, उससे रिलेटेड चीजें ही दिखेंगी। या आप कुछ और देखते है तो उससे जुडी चीजें आपको ज्यादा दिखाई देंगी| आप वही चीज बार-बार स्क्रीन पर देखते हैं, और कहीं ना कहीं आपके दिमाग में यह बात बैठ जाती है| कि हमें अब यह चाहिए, जो कि असल में वो चाहते हैं।
मशीन लर्निंग इंसानों को इस हद तक मॉडल कर सकती है कि एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सिस्टम एक व्यक्ति के पूरे व्यवहार को समझ सकता है, या सिर्फ इन सामान्य बातों को किसी करीबी दोस्त या परिवार से बेहतर समझ सकता है।इसलिए आज लोग फोन पर अधिक समय और भरोसा देने लगे हैं।
AI अब इतनी तेजी से खुद को स्मार्ट और , और स्मार्ट बना रही है कि वह इंसानों के भावनाओं और सोचने के तरीकों को भी समझ सकती है, सिर्फ लोगों को देखने, सर्च करने और सामग्री से रिएक्ट करने के तरीके से। यह मशीन को बहुत कुछ बताती है कि आप क्या करते हैं, किस तरह की सामग्री शेयर करते हैं, किस पोस्ट पर कमेंट करते हैं और उस पोस्ट को कितनी देर तक देखते हैं।
AI सिर्फ इन चीजों से समझ सकता है| आप किस देश से हैं , आप किस पर विश्वास करते हैं और आपकी कम्युनिटी क्या है । यह निरंतर स्मार्ट होता जा रहा है क्योंकि यह छोटी-छोटी जानकारी नहीं छोड़ता। डीप मशीन लर्निंग के कारण, AI ने इंसान की तार्किक सोच और प्रतिक्रिया को भी समझ लिया है। जब बात मीडिया के इंसानी मन पर प्रभाव की है, तो इसे समझने के लिए
यूजेस एंड ग्रिटिफिकेशन थ्योरी
मीडिया का उपयोग करने के पीछे मानवीय जरूरतें और प्रेरणाएँ।
‘यूजेस एंड ग्रिटिफिकेशन’ नामक थ्योरी का उल्लेख किया जाता है। यह थ्योरी बताती है कि एक इंसान की पांच तरह की जरूरतें होती हैं – पर्सनल, इमोशनल, सोशल, मेंटल, और कॉग्निटिव। और जब ये जरूरतें असल जिंदगी में किन्हीं कारणों से पूरी नहीं होती हैं, तो लोग मीडिया का सहारा लेते हैं। वे इन जरूरतों को पूरा करने के लिए मीडिया की ओर रुख करते हैं, पर इसके लिए उनके दिमाग को कहीं ना कहीं मेहनत करनी पड़ती है। उन्हें मिलने वाले कंटेंट्स को अपने दिमाग में समझ कर उसे अपने ढांचे में डालने के लिए इंसानी दिमाग को मेहनत करनी पड़ती है, और इसी काम को अब AI ने संभाल लिया है।
इंसानों को किसी भी चीज की आदत बहुत जल्दी लग जाती है, और हमारी आदतें हमें एक निश्चित तरह के जीवन में बांधकर या बदलकर रख देती हैं। आदत छुड़ाने में मेहनत भी काफी लगती है। संतुष्ठी एक पॉजिटिव फीलिंग है जो शरीर में खुशी के हार्मोन्स को रिलीज करती है, और अगर व्यक्ति को यह हार्मोन्स लगातार मिलने लगती है, तो इसकी भी आदत लग जाती है।
टेक्नोलॉजी की लत और मानसिक स्वास्थ्य
डिजिटल डिवाइसेस की लत कैसे मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है।
यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति अपने जीवन में बहुत दुखी होकर शराब पीता है। नशे की आदत आदमी को अपनी असली जिंदगी से थोड़ी देर दूर रखती है और भूलने में मदद करती है, लेकिन फिर आदत बन जाती है और आदमी हर समय अपने दुखों को भूलना चाहता है। लेकिन क्या वास्तविक जीवन को भूल जाने से आपका वास्तविक जीवन कहीं जाएगा? स्पष्ट रूप से, बिल्कुल नहीं। ऐसे ही, किसी को अपनी पसंद की चीज देखने से भी हमें खुशी का भाव आता है। तो डीप लर्निंग की मशीन जिन चीजों को हम बार-बार या लंबे समय तक देखते हैं, उसे नोट करती है और फिर हमें बार-बार ऐसी ही चीजें दिखाती है। हमारे दिमाग में लगातार खुशी के हार्मोन्स जारी होने से हमें धीरे-धीरे उस स्क्रीन को देखने की आदत पड़ जाती है, और यही कारण है कि आज हम दूसरों से अधिक फोन चलाते हैं।
यही कारण है आजकल ज्यादातर लोग डिप्रेशन के शिकार होने लगते हैं क्योंकि जब उन्हें फोन चलाने को नहीं मिलता, या ये कहें कि उनके दिमाग को लगातार ‘हैप्पी हार्मोन्स’ नहीं मिलते, तो वे विचलित होने लगते हैं। उन्हें लगातार खुश रहने के लिए कुछ चाहिए होता है, और अगर वह नहीं मिलता, तो वे बहुत दुखी हो जाते हैं। इन लोगों को थोड़ा दुख बहुत अधिक महसूस नहीं होता; इसके बजाय, उनके दिमाग की केमिस्ट्री थोड़ी बदल जाती है, जिससे उन्हें खुशी के अलावा सभी भावनाएं बहुत अधिक महसूस होने लगती हैं। यही नहीं, लोगों की याददाश्त भी कमजोर होती जा रही है क्योंकि वे सर्च इंजन या ऐप पर निर्भर हो गए हैं। याददाश्त कमजोर होने से ध्यान देने का समय भी कम होता जाता है, इसलिए लोग पढ़ाई से पहले से ज्यादा भागते हैं।
डिजिटल युग में आत्म-सम्मान
सोशल मीडिया पर लाइक्स और फॉलोअर्स का व्यक्तिगत आत्म-सम्मान पर प्रभाव।
जहाँ एक तरफ इंसान का दिमाग एक तरफ कमजोर हो रहा है, वहीँ दूसरी तरफ इंसानों में एक नई तरह की ईगो भी देखी जा रही है। डिजिटल यूजर्स फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल प्लेटफॉर्म बेस्ड ऐप्स से इस नए ईगो का पेट भर रहे हैं। जिनके भी ज्यादा फॉलोअर्स होते हैं, जिनके भी पोस्ट पर ज्यादा लाइक्स और कॉमेंट्स होते हैं, वे खुद को दूसरों से बड़ा मानने लगते हैं। और ठीक इसी के विपरीत, जिन लोगों के पोस्ट पर ज्यादा लाइक्स और कॉमेंट्स नहीं आते हैं, वे खुद को छोटा आंकने लगते हैं। हालांकि सोशल प्लेटफॉर्म बेस्ड ऐप्स सामाजिक गतिविधियों को बढ़ाती हैं,
पर समाज में वे कुछ ऐसा भी कर रही हैं जो पहले देखने को नहीं मिलती थी। अब जिन लोगों के पास ज्यादा फॉलोअर्स होते हैं या जिनके पोस्ट पर लाखों में लाइक्स और कॉमेंट्स जाते हैं, उन लोगों का अब एक अलग ही लेवल का स्टारडम बन रहा है। वे खुद को एक मशहूर हस्ती के रूप में देखते हैं और लोग भी उनकी इस मानसिकता को बढ़ावा देते हैं। और खास बात यह है कि ऐसे ही लोग, जो खुद को एक मशहूर हस्ती मानते हैं, कहीं न कहीं सोशल मीडिया के बढ़ते इस लत में योगदान देते हैं। यानी वे ऐसे यूजर्स होते हैं जो अपने आत्म-सम्मान और इमोशनल संतुष्टि के लिए सोशल मीडिया पर दूसरों से कहीं ज्यादा निर्भर हो जाते हैं।
भविष्य में AI की भूमिका
AI का भविष्य पर प्रभाव और इंसानी जीवन में इसकी संभावित भूमिका।
और ऐसा मानना कि आने वाले भविष्य में इंसान नहीं बल्कि AI चलाएगा, बिलकुल भी गलत नहीं है। और जिस तेजी के साथ इंसान खुद मूर्खता के इस राह पर चलता जा रहा है, तो अगर इंसान भविष्य चलाएगा, तो वह चल भी नहीं पाएगा, कई पुस्तकें और सलाहकार AI कंपनियों को यह सीखने में माहिर हैं कि यूजर्स को उनकी भावनाओं के माध्यम से कैसे आकर्षित किया जाए। तो क्या इंसान ही इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन है? यह एक गहन प्रश्न है जिस पर विचार करना जरूरी है। आज के युग में, जहां AI और मशीन लर्निंग ने हमारे जीवन को अधिक सुविधाजनक बना दिया है, वहीं इसने हमें अपनी भावनाओं और विचारों को समझने की हमारी क्षमता को भी प्रभावित किया है।या कहें ख़त्म कर रहा है | हमें इस बात का बहुत ध्यान रहना चाहिए कि हमारी निजी स्वतंत्रता और विचारों की स्वायत्तता को बनाए रखना कितना महत्वपूर्ण है, ताकि हम तकनीक के गुलाम न बन जाएं।

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